Friday, 28 September 2018

अंतःद्वंद

मुद्दतों हुए ख़ुद से मिले, जाने कहाँ भटक रहा हूँ।
आग का दरिया है या समंदर, जल रहा हूँ या गल रहा हूँ
या कि खो गया हूँ किसी निर्वात में
साँसे तो हैं पर कोई आवाज़ नही
दिल तो है पर पूरे जज़्बात नहीं
कुछ ख़्वाहिशें भी हैं पर उनमें वो बात नही
अब धड़कनें भी कुछ नही कहतीं उनमें भी कोई राज़ नही
फिर भी मुस्कुरा रहा हूँ, हर रिश्ता निभा रहा हूँ
मैं अपना ग़म स्वयँ से ही छिपा रहा हूँ।
शायद स्वप्न में हूँ, कोई भी बन्धन नही तोड़ पा रहा हूँ
या कि कमज़ोर हो गया हूँ, स्वयँ का भी बोझ नही उठा पा रहा हूँ लेकिन,
कमज़ोर होना तो मेरी फितरत ही नही, मैं क्या से क्या हो रहा हूँ
मुद्दतों हुए ख़ुद से मिले, जाने कहाँ भटक रहा हूँ।

कब और कैसे भटका, अब खोज़ रहा हूँ मैं
क्या, कब, कहाँ और क्यों, इन प्रश्नों से उलझ रहा हूँ मैं
ख़ुद से कब मिलूँगा, अब सोच रहा हूँ मैं लेकिन,
भटकना तो फितरत है मेरी, फिर क्यों डर रहा हूँ मैं
शायद यही ज़िन्दगी है और मौज कर रहा हूँ मैं।
नही खोया निर्वात में ना ही स्वप्न में हूँ
इसी दुनिया मे हूँ और दुनियादारी सीख रहा हूँ मैं।

- अभिषेक तिवारी