Friday, 7 October 2016

प्रेम में मिलन

उधेड़बुन में हूँ कि क्या मिलना भी उतना ही रोमांचकारी होता होगा,
जितनी कि कल्पनाएँ होती हैं।
चकोर को चाँद मिल जाए तो क्या होगा ?
शायद कुछ नए प्रतिमान बनेंगे।
परंतु क्या ये प्रतिमान चकोर की वर्षों से की तपस्या से न्याय कर सकेंगे ?
क्या सुदूर चाँद के प्रति चकोर के उस निश्छल प्रेम को मिलन के प्रतिमानों में बाँधा जा सकता है ?
मिलन प्रेम की परिणति हो ही नही सकती
तभी तो राधा-कृष्ण ने चाँद-चकोर ही रहना स्वीकार कर लिया।
सीता ने भी राम से अलग होकर ही अपने प्रेम को अमर किया।
प्रेम में मिलन तो एक आकांक्षा मात्र है, एक अनन्त की भाँति, जिसे मिलन के प्रतिमानों में बाँधा ही नही जा सकता।
प्रेम अनन्त है और यदि प्रेम की परिणति मिलन है,
तो वो कैसा अनन्त जिसका अंत मिल गया हो।

- अभिषेक तिवारी।

Monday, 3 October 2016

मिलन

एक शख़्स जाना-पहचाना सा पर शख़्सियत अनजानी सी।
कई वर्षों से ढूंढ़ रहा था जिसको मिलना है अब उसको।
क्या कहूँगा उसको मिल न पाया आज तक स्वप्न से बाहर जिसको।
बहुत कुछ सोचा है: उर का हर एक स्पंदन सुना दूँगा उसको।
कहूँगा देख प्रिये! न डिगा पाई ये लम्बी प्रतीक्षा भी मुझको।
और बहुत कुछ है कहने को पर अब सोच-सोच कर बोलना बेमानी लगता है।
केवल उसके अन्दाज़-ए-ज़ुस्तज़ु को ही देखा था नही कर पाया था कभी गुफ़्तगू शायद इसीलिए ये आसमानी लगता है।
वो ललाती साँझ के नभ की अकेली तारीका सी थी, और आज पावस की सजला बदली सी मेघमय आसमान से उतर कर बढ़ रही है मेरी ओर।
पर न जाने क्यों अब भी कटी पतंग सी लग रही, नही है जिसकी मेरे पास कोई डोर।
शायद अब भी वो एक चाँद है और मैं एक चकोर,
मिलन संभव नही, बढ़ रहा हूँ अब भी एक अनंत की ओर।
-अभिषेक तिवारी