मुझे जीना नही आता,
ज़िन्दगी जब तक मुझे एक दो पठखनियाँ नही दे देती मेरी धमनियों में उबाल नही आता,
पठखनी दर पठखनी ससख्त होता जाता हूँ।
फिर ज़िन्दगी अपनी शर्तों पर जीने निकल पड़ता हूँ,
बेख़बर बेपरवाह तब तक जब तक, ऐ ज़िन्दगी फिर कोई करारा जवाब नही मिल जाता।
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अभिषेक तिवारी।
Friday, 28 July 2017
मुझे जीना नही आता
मुझे प्रेम करना नही आता
मुझे प्रेम करना नही आता, हाँ लेकिन सुनो प्रिये तुम्हारी रुआँसी आवाज़ सुनकर ग़ुस्सा बहुत आता है।
नही रहता स्वयं पर नियंत्रण अपराधबोध से दब सा जाता हूँ।
न जाने क्यों धमनियों में अंगार दौड़ने लगता है और फिर अचानक लगने लगता है कि - काश! तुमसे मिला ही न होता, न की होती कोई बात, न दिखाए होते दिल के जज़्बात।
मैं तुझसे तू मुझसे बेख़बर, करते हम स्वप्न ही में बात।
नही देना होता बोल - बोल कर प्रेम का प्रमाण, चुप-चाप बिन कहे ही रखता ख़्याल तुम्हारा, ना तुम मुझे बदलती न मैं तुम्हे बदलता बस एक मुस्कान पर तुम्हारी ये दिल पतझड़ के सूखे पत्तों सा बिछ जाता।
नही आता मुझे रूठना - मनाना और ना ही तुम्हारी सुंदरता के कशीदे पढ़ कर सुनाना, हाँ लेकिन सुनो प्रिये तुम्हारी रुआँसी आवाज़ सुनकर ग़ुस्सा बहुत आता है।
खो देता हूँ अपने को अपने आप से, आँखों से आँसू भी नही आते, शायद भाप बन जाते हैं शरीर के ताप से।
एक ज्वाला सी उठती है मन मे और जला देती है स्वप्न सारे, दिन रात लगने लगते हैं किसी शाप से।
नही आता दिल चीर कर सिया- राम दिखाना, हाँ लेकिन सुनो प्रिये तुम्हारी रुआँसी आवाज़ सुन कर ग़ुस्सा बहुत आता है।
नही आता सब कुछ अर्पण कर तर्पण करना, हाँ लेकिन सुनो प्रिये तुम्हारी रुआँसी आवाज़ सुन कर ग़ुस्सा बहुत आता है
मुझे नही आता प्रेम करना, हाँ लेकिन सुनो प्रिये तुम्हारी रुआँसी आवाज़ सुन कर ग़ुस्सा बहुत आता है।
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अभिषेक तिवारी
Friday, 27 January 2017
मैं सच बोलता हूँ।
जी हाँ, मैं सच बोलता हूँ।
सुनता कोई नहीं फिर भी रोज बोलता हूँ।
पत्थरों में भगवान देखता हूँ लेकिन इंसानो में नाम देखता हूँ।
कभी धर्म देखता हूँ कभी जाति देखता हूँ, कभी रंग देखता हूँ कभी ढंग देखता हूँ।
मैं न कर्म देखता हूँ न ईमान देखता हूँ,
क्यों न मैं इंसानो में इंसान देखता हूँ?
सबको मैं कई तरह से कई बार तोलता हूँ,
जी हाँ मैं सच बोलता हूँ।
हर रोज़ एक स्वप्न देखता हूँ, स्वप्न में सारा जहाँन देखता हूँ और स्वयं को ही सबसे महान देखता हूँ।
सारा जहाँन देखता हूँ स्वयं का छोड़ सबका मकान देखता हूँ।
सबकी जीत देखता हूँ, सबकी हार देखता हूँ,
मैं न स्वयं के ह्रदय की रार देखता हूँ,
क्यों न मैं सब के घर को अपना मकान देखता हूँ?
मैं तो सब के घरों में झांक सभी के राज़ खोलता हूँ,
जी हाँ मैं सच बोलता हूँ।
आ गए चुनाव मैं इनका उनका सबका खाता हूँ,
मिल जाये कुछ तो घर भी लाता हूँ।
न दल देखता हूँ न व्यापार देखता हूँ,
न विचार देखता हूँ न सम्मान देखता हूँ।
मैं धर्म और जाति में ही सबकी पहचान देखता हूँ,
क्यों न मैं सभी दलों के काम देखता हूँ?
अजी आप दाम तो बोलो मैं तो स्वयं को ही मोलता हूँ,
जी हाँ मैं सच बोलता हूँ।
हुआ बेटा नगाड़े बजा मिठाई बाँटता हूँ,
हो गयी बेटी जो मुँह बना कर्ज़ माँगता हूँ।
कभी परंपराओं तो कभी समाज को कोसता,
निज दोष न पाता, स्वयं को समाज से अलग सोचता हूँ।
बेटी को बेटे से कम देखता हूँ,
क्यों न मैं बेटा-बेटी एक सम देखता हूँ?
अजी छोड़ो भी, मैं तो इंसान हूँ स्वयं को छोड़ सबको टटोलता हूँ,
जी हाँ मैं सच बोलता हूँ।
- अभिषेक तिवारी।