एक शख़्स जाना-पहचाना सा पर शख़्सियत अनजानी सी।
कई वर्षों से ढूंढ़ रहा था जिसको मिलना है अब उसको।
क्या कहूँगा उसको मिल न पाया आज तक स्वप्न से बाहर जिसको।
बहुत कुछ सोचा है: उर का हर एक स्पंदन सुना दूँगा उसको।
कहूँगा देख प्रिये! न डिगा पाई ये लम्बी प्रतीक्षा भी मुझको।
और बहुत कुछ है कहने को पर अब सोच-सोच कर बोलना बेमानी लगता है।
केवल उसके अन्दाज़-ए-ज़ुस्तज़ु को ही देखा था नही कर पाया था कभी गुफ़्तगू शायद इसीलिए ये आसमानी लगता है।
वो ललाती साँझ के नभ की अकेली तारीका सी थी, और आज पावस की सजला बदली सी मेघमय आसमान से उतर कर बढ़ रही है मेरी ओर।
पर न जाने क्यों अब भी कटी पतंग सी लग रही, नही है जिसकी मेरे पास कोई डोर।
शायद अब भी वो एक चाँद है और मैं एक चकोर,
मिलन संभव नही, बढ़ रहा हूँ अब भी एक अनंत की ओर।
-अभिषेक तिवारी
Monday, 3 October 2016
मिलन
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Kya bat hi sir....behad khubsurat hi
ReplyDeleteSuperb...:) :) :)
ReplyDeleteAb samajh me aa gyi...ek ek pankti is kavita ki...ek ek shabd piriya hai lekhak ne...:)
ReplyDeleteall the best...happy birthday...:)
piriya====> piroya...
ReplyDeletesorry for the typing error