जी हाँ, मैं सच बोलता हूँ।
सुनता कोई नहीं फिर भी रोज बोलता हूँ।
पत्थरों में भगवान देखता हूँ लेकिन इंसानो में नाम देखता हूँ।
कभी धर्म देखता हूँ कभी जाति देखता हूँ, कभी रंग देखता हूँ कभी ढंग देखता हूँ।
मैं न कर्म देखता हूँ न ईमान देखता हूँ,
क्यों न मैं इंसानो में इंसान देखता हूँ?
सबको मैं कई तरह से कई बार तोलता हूँ,
जी हाँ मैं सच बोलता हूँ।
हर रोज़ एक स्वप्न देखता हूँ, स्वप्न में सारा जहाँन देखता हूँ और स्वयं को ही सबसे महान देखता हूँ।
सारा जहाँन देखता हूँ स्वयं का छोड़ सबका मकान देखता हूँ।
सबकी जीत देखता हूँ, सबकी हार देखता हूँ,
मैं न स्वयं के ह्रदय की रार देखता हूँ,
क्यों न मैं सब के घर को अपना मकान देखता हूँ?
मैं तो सब के घरों में झांक सभी के राज़ खोलता हूँ,
जी हाँ मैं सच बोलता हूँ।
आ गए चुनाव मैं इनका उनका सबका खाता हूँ,
मिल जाये कुछ तो घर भी लाता हूँ।
न दल देखता हूँ न व्यापार देखता हूँ,
न विचार देखता हूँ न सम्मान देखता हूँ।
मैं धर्म और जाति में ही सबकी पहचान देखता हूँ,
क्यों न मैं सभी दलों के काम देखता हूँ?
अजी आप दाम तो बोलो मैं तो स्वयं को ही मोलता हूँ,
जी हाँ मैं सच बोलता हूँ।
हुआ बेटा नगाड़े बजा मिठाई बाँटता हूँ,
हो गयी बेटी जो मुँह बना कर्ज़ माँगता हूँ।
कभी परंपराओं तो कभी समाज को कोसता,
निज दोष न पाता, स्वयं को समाज से अलग सोचता हूँ।
बेटी को बेटे से कम देखता हूँ,
क्यों न मैं बेटा-बेटी एक सम देखता हूँ?
अजी छोड़ो भी, मैं तो इंसान हूँ स्वयं को छोड़ सबको टटोलता हूँ,
जी हाँ मैं सच बोलता हूँ।
- अभिषेक तिवारी।
bahut Umda Likha hai bhai.. Keep It Up!!
ReplyDeleteSuperb...:)
ReplyDeleteQ na mai insaano me insaan dekhta hu.......swayam ko chhod sabka makaan dekhta hu...
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