माँ, बाबा, भैया सबसे दुलराती
गुड्डे-गुड़ियों का ब्याह रचाती
खाना पकाती, सबको खिलाती
बर्तन भले ही छोटे हों,
लेकिन सबको बराबर भोग लगाती।
कभी मिट्टी के बर्तन बनाती,
कभी मास्टरनी बन सबको पढ़ाती
खूब धूम मचाती, कभी-कभी स्कूल मोहल्ले में लड़ भी आती-
भाई को मारा, बहन की चुटिया खींची थी
माँ, उसने बाबा को गाली दी थी
संग न जाने कितने बहाने लाती।
माँ गुस्साति, बाबा को हँसी आ जाती।
ऐसे ही एक रोज़ माँ को2 खूब गुस्सा आया
हाथ पकड़कर उसने समझाया-
ऐसे लड़ेगी-भिड़ेगी तो ब्याह कौन करेगा?
कूदती-फिरती है दरवाज़े पर सारा दिन ये समाज क्या कहेगा?
पराया धन है तू, सब पूछेंगे माँ ने तेरी नही कुछ सिखाया?
आज थोड़ी सहम गयी, हाथ झटक कर फिर भी निकल गयी।
एक शाम, था साखियों संग खेलने जाना,
फुदकती हुई निकल रही थी कि ठिठके कदम सुन माँ का कहना
अरे! ये तूने क्या है पहना, नही पता लज्जा है स्त्री का गहना।
माँ, मैं तो बच्ची हूँ, क्यों पहनूँ स्त्री का गहना
मान मेरा कहना, बच्ची नही रही अब तू बड़ी हुई
माँ, कल तक तो थी बीमार मैं बिस्तर पर पड़ी हुई
सहसा क्या हुआ जो एकदम से बड़ी हुई।
बहस मत कर, अब तुझे डरना होगा
अपने ही घर दुपट्टा लगा कर चलना होगा।
पलकें झुका कर धीमे-धीमे तू चलना
न राह में तू किसी से बातें करना।
उम्मीदी आँखों ने बाबा की ओर देखा एक बार
लेकिन बाबा ने भी फेर लीं नजरें इस बार।
अब हुई झील सी शांत, जो थी नदियों सी चंचल
आँखों में समेट समंदर, करती न नदियों सी भी कल-कल
अब भीड़ से डरा करती है, पलकें झुका कर ही चला करती है।
जब भी अकेली होती है, जाने क्यों सहमी होती है।
कपड़े भी अलग हो गए इसके बड़े-बड़े शूट पहना करती है
संभलता नही दुपट्टा पिन से साध लिया करती है
समाज की नज़र से खुद को बचाती फिरती है।
अब रखती है बन्द करके अपने भी कमरे की खिड़की
हाँ ये है वही लड़की।
हो गयी अपने ही घर मे परायी
लगा, न सगे रहे अपने ही माँ, बाबा और भाई।
सबको समाज का बड़ा मान था
क्या उनको न इस बात का भान था
कि रहती सदा गिद्धों की नज़रें, निरीह पड़े मांस पर
चीलें भी करती शिकार, सहमी चुहियों पर घात कर।
है समाज भी इन चील-गिद्धों से भरा पड़ा
कोई न बोलने को यहाँ अब खड़ा,
जब इसके घर पर ही गिद्ध मँडराते हैं,
खुद को घर वालों से भी सगा जता उसको फुसलातें हैं
दोस्त, पड़ोसी और रिश्तेदार का भेष बना कर आते हैं
अपनी मीठी बातों से निर्मल हृदय में एक विश्वास जगाते हैं
अपने छल को प्यार नाम दे हसीं सपने खूब दिखाते हैं
और यूँ ही हँसते मुस्कुराते एक दिन घात कर जाते हैं।
उसी समाज के सामने फिर उसको लाया जाता है
क्योंकि अब प्रश्न सामाजिक न्याय का आता है
घर-परिवार, प्यार, संस्कार सब घसीटा जाता है
पुनः समाज को न्याय का अवतार बताया जाता है।
दी जाती है दलीलें जो माँ-बाबा नही सुन सकते
कि वे तो गिद्ध हैं अपना स्वभाव कब छोड़ सकते
माँस खा कर उड़ जाना उनका धर्म है भला कैसे विमुख हो सकते।
गिद्धों का तो दोष नही, यह तय रहा
लेकिन न्याय में तो अब भी संसय रहा
हुआ है समाज का अनादर सजा कोई तो पायेगा-
गुमनामी में वह परिवार जिएगा और जिस भी घर बैठा गिद्ध वह घर ही छोड़ा जाएगा।
- अभिषेक तिवारी।
Heart touching
ReplyDeleteThanku Bhaiya 😊
Deleteसमाज के असली चरित्र, बल्कि चरित्रहीनता कहना बेहतर होगा, का सटीक चित्रण।
ReplyDeleteआभार 🙏
Deleteवाह अभिषेक जी आप ने लड़की के समय के साथ मरते हुवे उसके बचपन और समय के साथ समाज द्वारा थोपी गई बेबसी दोनों पे करारा प्रहार किया है.... साधु साधु....
ReplyDelete🙏🙏
DeleteBahut achchhi Kavita, bahut sari achchhi buri yaaden tair gayin zehan me, jo ab guzar chukin, Lekin kabhi kabhi, Abhi ki baat lagti Hain, tumne bahut achchhe se likha h Babu.. thank you
ReplyDelete🙏🙏 The pleasure is all mine Di😊
Delete