Sunday, 28 June 2015

आज देखा मैंने बारिश का आना।

आज देखा मैंने बारिश का आना
गर्म जमीं पे उतर के वह मरहम सा सहलाना
पेड़ पौधों की वो ख़ुशी, पंछियों का वह चहचहाना
आज देखा मैंने बारिश का आना।

किसान के आँखों में चमक सी आ गयी
जो ये देखा कि बदली सी छा गयी
किया था बेसब्र हो कर जिसका इंतज़ार मानो वो घड़ी आ गयी
कुछ सुर्ख हवाएँ चलीं और मौसम में नमी छा गयी
उद्देश्य था इनका सबको कुछ दे जाना
आज देखा मैंने बारिश का आना।

सबकी उम्मीदें पूरी करती इन बूंदों को देखा
बड़ी मस्तमौला बड़ी अविरल हैं ये
न किसी से कोई उम्मीद ना ही है इनकी कोई इच्छा
एक ही ध्येय है औरों के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर जाना
फिर भी न जाने क्या-क्या न सुनतीं ये जब भी गलत होता इनका पैमाना।

इन बूंदों से सीख मैं भी सबकी उम्मीदों पर न्योछावर होना चाहता हूँ
लेकिन अभी ढूँढ रहा हूँ सही पैमाना
विनती यही है जग से सब अपना सब कुछ वार दें
बिना किये कुछ उम्मीद किसी से,
लेकिन कब, कहाँ, किसको, और कितना सदा ज्ञात रहे इसका पैमाना
आज देखा मैंने बारिश का आना।
-अभिषेक तिवारी

Saturday, 27 June 2015

बीते दिन

दिल चुप है जख्म उभरने लगे हैं
ना जाने क्यों बीते दिन, फिर याद आने लगे हैं।
एक अजीब सी उलझन में है मन कुछ सोच ही नही पाता
शायद पीछे कुछ छूट सा गया है
जिसके लिए ये जख्म उभरने लगे हैं
ना जाने क्यों बीते दिन, फिर याद आने लगे हैं।
तनहाइयों में की कोशिश मन को समझाने की
और भींड में की कोशिश बीती बातें भुलाने की पर क्या करूँ,
कहीं न कहीं कोई न कोई कुरेद ही देता है इन जख्मों को
जब ये ढलने लगे हैं।
ऐ दिल तू ही बता इससे बड़ी सजा क्या होगी
अब तो जख्म देने वाले भी समझाने लगे हैं
ना जाने क्यों बीते दिन, फिर याद आने लगे हैं।
अब तो बस जी करता है रोने का पर
कमबख्त आंसू भी जाने लगे हैं।
तनहाइयों की क्या बात करें अब तो
भींड में भी अकेले होने लगे हैं।
किस से उम्मीद करें इस दुनिया में
जब खुद ही खुद से दूर जाने लगे हैं
ना जाने क्यों बीते दिन, फिर याद आने लगे हैं।
अब तो बड़ी अजीब सा सोचने लगे हैं
सोचते हैं क्यों जियें किसके लिए जियें
शायद जीने के लिए मंजिल ढूँढने लगे हैं।
ना जाने क्यों बीते दिन, फिर याद आने लगे हैं।
-अभिषेक तिवारी

Friday, 26 June 2015

नया दौर

छाया,प्रगति,प्रयोग के बाद यह नयी कविताओं का दौर है।
परतंत्रता और गरीबी के बाद यह नयी बुलंदियों का दौर है।
कब का बीत गया वह दावानल फिर भी भोजन देने की नीतियाँ बनाते हैं।
आज हम स्वतंत्र हैं किसी पर  किसी का न कोई जोर है।
फिर भी हाय! न जाने क्या हुआ है कि हर तरफ केवल शोर ही शोर है।
पीढियां लड़ती चली आयीं जिनकी अस्मिता के लिए आज हम उन्ही के दामन चुराते हैं।
'गुप्त' की लेखनी ने किये थे प्रस्ताव जो कि जग जाएँ सोये हुए हों भाव जो, आज हम 'फेसबुक' और 'ट्विटर' चलाते हैं, फिर भी न जाने क्यों नित्य नयी-नयी पार्टियों के पेज बनाते हैं।
कभी विषयोत्क्रिष्टता से होती थी विचारोत्क्रिष्टता आज हम विचारोत्क्रिष्टता से उत्कृष्ट विषय बनाते हैं।