Saturday, 27 June 2015

बीते दिन

दिल चुप है जख्म उभरने लगे हैं
ना जाने क्यों बीते दिन, फिर याद आने लगे हैं।
एक अजीब सी उलझन में है मन कुछ सोच ही नही पाता
शायद पीछे कुछ छूट सा गया है
जिसके लिए ये जख्म उभरने लगे हैं
ना जाने क्यों बीते दिन, फिर याद आने लगे हैं।
तनहाइयों में की कोशिश मन को समझाने की
और भींड में की कोशिश बीती बातें भुलाने की पर क्या करूँ,
कहीं न कहीं कोई न कोई कुरेद ही देता है इन जख्मों को
जब ये ढलने लगे हैं।
ऐ दिल तू ही बता इससे बड़ी सजा क्या होगी
अब तो जख्म देने वाले भी समझाने लगे हैं
ना जाने क्यों बीते दिन, फिर याद आने लगे हैं।
अब तो बस जी करता है रोने का पर
कमबख्त आंसू भी जाने लगे हैं।
तनहाइयों की क्या बात करें अब तो
भींड में भी अकेले होने लगे हैं।
किस से उम्मीद करें इस दुनिया में
जब खुद ही खुद से दूर जाने लगे हैं
ना जाने क्यों बीते दिन, फिर याद आने लगे हैं।
अब तो बड़ी अजीब सा सोचने लगे हैं
सोचते हैं क्यों जियें किसके लिए जियें
शायद जीने के लिए मंजिल ढूँढने लगे हैं।
ना जाने क्यों बीते दिन, फिर याद आने लगे हैं।
-अभिषेक तिवारी

2 comments:

  1. दिल की आवाज़!
    तन्हाई बहुत खूबसूरत चीज़ है भाई...
    जी लो तन्हाई में...एक स्वतंत्र प्राणी की भांति.

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    1. बिलकुल सही कहा मित्र! बीते दो वर्षों से लाभ ले रहा हूँ । तभी तो आत्माभिव्यक्ति जान पा रहा हूँ।

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