जाने कैसे कटेगी,
अँधेरे अकेले घर में, अँधेरी अकेली रात
कितने दिनों बाद हुई थी, आज तुमसे मुलाकात
चारों ओर सन्नाटा था तुमने भी ना छेड़ी कोई बात
मैं तो निःशब्द था लेकिन तुम?
तुम तो पलकों से ही कितने राज खोल सकती थी
आँखों से तो तुम बोल सकती थी।
तुम्हारी झुकी आँखों में अब भी वही हया की लाली थी
लेकिन पलकें साध ली थी तुमने, क्या कोई राज छुपा के लाई थी?
इस अँधेरी अकेली रात में क्या कहने आई थी?
तुम मेरा ख़्वाब थी या कि मेरी तमन्ना
या थी कोई आसमानी परी जो आई थी,
मुझसे अपनी तनहा रातों का हिसाब माँगने।
जिन रातों में तुम्हारा पूरा शरीर विरह से तप रहा होता था
और मैंने तुमसे आँख तक ना मिलाई थी।
हाँ तुम हिसाब मांगने ही आई थी
या शायद विरह की तपन का एहसास कराने
जिसमें न जाने तुमने अपनी कितनी रातें झुलसाई थीं।
तुमने आते ही स्याह रात में चाँदनी सी बिखेर दी
तुम्हारी खुशबू ऐसी थी मानो
धूप से जलती हुई धरती पर बारिश की ठंडी बूँदों ने मरहम लगा दिया उस सोंधी खुशबू की मदहोशी में मैं तुम्हारी आंखों में डूब रहा था कि तुम्हारी पलकों ने एक पहरा सा लगा दिया
और तुम ऐसे ओझल होने लगी मानो यह रात, रात थी ही नहीं
यह कोई ग्रहण था जिसने सूरज को भी अपने आगोश में भर लिया था तुम जा चुकी थी, ऐसे कि जैसे कभी आई ही ना हो
अब यहाँ केवल मैं हूँ और कुछ मौन सवालात
जाने कैसे कटेगी अँधेरे अकेले घर में अँधेरी अकेली रात।
©अभिषेक तिवारी।
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