Tuesday, 2 April 2024

मुक्ति मार्ग

मनुष्य का कर्म अच्छा या बुरा नहीं होता "कर्म" होता है, अवगुण या दुर्गुण नहीं होता "गुण" होता है, कि सद्गति या दुर्गति नहीं होती "गति" होती है।
काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार यह मनुष्य के स्वाभाविक गुण है परंतु समाज में स्वीकार नहीं तथा इन्हें अवगुण की संख्या दी गई है। इसका कारण यह माना जाता है की इन गुणों के कारण समाज के अन्य लोगों को हानि हो सकती है या किसी के मूल अधिकारों का हनन हो सकता है।
आत्मा के सात मौलिक गुण जो बताए गए हैं पवित्रता, शान्ति, प्रेम, सुख, आनंद, शक्ति व ज्ञान यह मनुष्य के मौलिक गुण है ही नहीं अपितु यह किसी भी एक स्वाभाविक गुण (काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार) के चर्मोत्कर्ष पर जाने अथवा इन पांचो गुणों को पूर्ण रूप से नियंत्रित करने के पश्चात मिलने वाले उपहार हैं।

उपहार प्राप्तकर्ता को तत्वज्ञानी, बोधिसत्व, एनलाइटेंड  आदि संज्ञाऐं दी गई है।  बड़े - बड़े ऋषि महात्मा, संत,धर्मात्मा, योगी आदि ने अपने स्वाभाविक गुणों  पर नियंत्रण प्राप्त कर ये उपहार प्राप्त किया। 

अब विडंबना ये है कि कई सारे  राक्षस, दानव, दुरात्माओं आदि ने अपने एक ही स्वाभाविक गुण को चरमोत्कर्ष पर पहुंचाकर यह उपहार सहज ही प्राप्त कर लिए। रावण, दुर्योधन, कंस आदि कई उदाहरण हैं जिन्होंने आत्मा के मौलिक गुणों को प्राप्त किया अर्थात मुक्त हो गए।
आत्मा के मौलिक गुणों (पवित्रता, शान्ति, प्रेम, सुख, आनंद, शक्ति व ज्ञान) को प्राप्त कर लेना ही मुक्ति है।

Sunday, 3 May 2020

विरह

जाने कैसे कटेगी,
अँधेरे अकेले घर में, अँधेरी अकेली रात


कितने दिनों बाद हुई थी, आज तुमसे मुलाकात


चारों ओर सन्नाटा था तुमने भी  ना छेड़ी कोई बात


मैं तो निःशब्द था लेकिन तुम?


तुम तो पलकों से  ही कितने राज खोल सकती थी  


आँखों से तो तुम बोल सकती थी।


तुम्हारी झुकी आँखों में अब भी वही हया की लाली थी


लेकिन पलकें साध ली थी तुमने, क्या कोई राज छुपा के लाई थी?


इस अँधेरी अकेली रात में क्या कहने आई थी?


तुम मेरा ख़्वाब थी या कि मेरी तमन्ना


या थी कोई आसमानी परी जो आई थी,


मुझसे अपनी तनहा रातों का हिसाब माँगने।


जिन रातों में तुम्हारा पूरा शरीर विरह से तप रहा होता था


और मैंने तुमसे आँख तक ना मिलाई थी।


हाँ तुम हिसाब मांगने ही आई थी


या शायद विरह की तपन का एहसास कराने


जिसमें न जाने तुमने अपनी कितनी रातें झुलसाई थीं।


तुमने आते ही स्याह रात में चाँदनी सी बिखेर दी 


तुम्हारी खुशबू ऐसी थी मानो


धूप से जलती हुई धरती पर बारिश की ठंडी बूँदों ने मरहम लगा दिया उस सोंधी खुशबू की मदहोशी में मैं तुम्हारी आंखों में डूब रहा था कि तुम्हारी पलकों ने एक पहरा सा लगा दिया


और तुम ऐसे ओझल होने लगी मानो यह रात, रात थी ही नहीं


यह कोई ग्रहण था जिसने सूरज को भी अपने आगोश में भर लिया था तुम जा चुकी थी, ऐसे कि जैसे कभी आई ही ना हो


अब यहाँ केवल मैं हूँ और कुछ मौन सवालात


जाने कैसे कटेगी अँधेरे अकेले घर में अँधेरी अकेली रात।


©अभिषेक तिवारी।

Thursday, 25 July 2019

आस्था और अंधविश्वास

अंधविश्वास का प्रादुर्भाव आस्था से ही हुआ है।
वैसे अंधविश्वासी हम सभी होते हैं अपने माँ, पिताजी, परिवार, गुरुजी के प्रति।
ईश्वर के प्रति आस्था आखिर कहाँ से जगी हमारे मन में सोचा है किसी ने शायद दादी और नानी की कहानियों से या फिर माँ के हर मंदिर और मूर्ति के सामने "भगवान जी को जय करलो" वाले वाक्यों से।
ये घर वालों के प्रति हमारी आस्था थी या अंधविश्वास की उन्होंने जो बताया हमने सच मान लिया। उस समय हम कर भी क्या सकते थे हमारे पास अपना विवेक तो था नही।
अतः बिना विवेक की आस्था ही अंधविश्वास है।
आज भी हम लोग धार्मिक कार्यों में अपना विवेक नही प्रयोग करते या करना ही नही चाहते शायद तर्क से आस्था में चोट पहुँचती है। लेकिन मेरा मानना है कि खूब तर्क करिये अपना विवेक इस्तेमाल करिये याद करिये महाभारत के उस अर्जुन को जिसने कृष्ण को सर्वेस्वर जानते हुए भी तर्क किया और पूरी तरह संतुष्ट हो कर ही उनकी बातों को आत्मसात किया। हमारे पुराण और उपनिषद भरे पड़े हैं ऐसे ही तर्कों से। किसी भी धार्मिक अनुष्ठान से पूर्व उसका कारण जानें अगर आपके विवेक से वह कारण सही है तो आस्था और यदि बिना विवेक इस्तेमाल किये कर रहे हैं तो अंधविश्वास है ।
मेरी आस्था है राम, कृष्ण, महादेव के दिखाए गए रास्तों में उनकी शिक्षा में न कि अंधविश्वास है कुछ लोगो द्वारा उनको प्रसन्न करने के बताये गए तरीकों में।

- अभिषेक तिवारी

Sunday, 21 July 2019

तुम मेरी हार हो।

तुम मेरी हार हो
हार हो तुम मेरी
लेकिन तुम्हें हम एकदिन
जीत कर दिखाएँगे
न सोचना तुम कभी
कभी तुम न सोचना
पुनः हम वह प्रणय गीत दोहराएँगे
तुम चली जाना अपने घर को
तुम्हें हम कभी ना बुलाएँगे
तुम्हारे रस्ते के सारे कंटक
हम स्वयं ही हटाएँगे
मुस्कुराती रहो सदा
उसके सारे जतन कर जाएँगे

लेकिन सुनो जब मेरे मन के घाव चिल्लाएँगे
रिस-रिस कर यह मेरे तन को जब पिघलाएँगे
तब तुम्हारी आंखों के आँसू भी न रुक पाएँगे
जीवित तो होगी तुम कहीं
लेकिन चित्त तुम्हारे भी न रह पाएँगे
केवल मेरे ही किस्से और कथानक याद आएँगे
देखना तुम मेरे बाद से प्रेम के सारे मानक बदल जाएँगे
आग मुझ में लगेगी और लोग तुमसे जल जाएँगे
आग मुझ में लगेगी और लोग तुमसे जल जाएँगे
तुम मेरी हार हो, हार हो तुम मेरी
लेकिन तुम्हें हम एकदिन जीत कर दिखाएँगे

-©अभिषेक तिवारी

Wednesday, 13 February 2019

लड़की

माँ, बाबा, भैया सबसे दुलराती
गुड्डे-गुड़ियों का ब्याह रचाती
खाना पकाती, सबको खिलाती
बर्तन भले ही छोटे हों,
लेकिन सबको बराबर भोग लगाती।
कभी मिट्टी के बर्तन बनाती,
कभी मास्टरनी बन सबको पढ़ाती
खूब धूम मचाती, कभी-कभी स्कूल मोहल्ले में लड़ भी आती-
भाई को मारा, बहन की चुटिया खींची थी
माँ, उसने बाबा को गाली दी थी
संग न जाने कितने बहाने लाती।
माँ गुस्साति, बाबा को हँसी आ जाती।
ऐसे ही एक रोज़ माँ को2 खूब गुस्सा आया
हाथ पकड़कर उसने समझाया-
ऐसे लड़ेगी-भिड़ेगी तो ब्याह कौन करेगा?
कूदती-फिरती है दरवाज़े पर सारा दिन ये समाज क्या कहेगा?
पराया धन है तू, सब पूछेंगे माँ ने तेरी नही कुछ सिखाया?
आज थोड़ी सहम गयी, हाथ झटक कर फिर भी निकल गयी।
एक शाम, था साखियों संग खेलने जाना,
फुदकती हुई निकल रही थी कि ठिठके कदम सुन माँ का कहना
अरे! ये तूने क्या है पहना, नही पता लज्जा है स्त्री का गहना।
माँ, मैं तो बच्ची हूँ, क्यों पहनूँ स्त्री का गहना
मान मेरा कहना, बच्ची नही रही अब तू बड़ी हुई
माँ, कल तक तो थी बीमार मैं बिस्तर पर पड़ी हुई
सहसा क्या हुआ जो एकदम से बड़ी हुई।
बहस मत कर, अब तुझे डरना होगा
अपने ही घर दुपट्टा लगा कर चलना होगा।
पलकें झुका कर धीमे-धीमे तू चलना
न राह में तू किसी से बातें करना।
उम्मीदी आँखों ने बाबा की ओर देखा एक बार
लेकिन बाबा ने भी फेर लीं नजरें इस बार।

अब हुई झील सी शांत, जो थी नदियों सी चंचल
आँखों में समेट समंदर, करती न नदियों सी भी कल-कल
अब भीड़ से डरा करती है, पलकें झुका कर ही चला करती है।
जब भी अकेली होती है, जाने क्यों सहमी होती है।
कपड़े भी अलग हो गए इसके बड़े-बड़े शूट पहना करती है
संभलता नही दुपट्टा पिन से साध लिया करती है
समाज की नज़र से खुद को बचाती फिरती है।
अब रखती है बन्द करके अपने भी कमरे की खिड़की
हाँ ये है वही लड़की।
हो गयी अपने ही घर मे परायी
लगा, न सगे रहे अपने ही माँ, बाबा और भाई।

सबको समाज का बड़ा मान था
क्या उनको न इस बात का भान था
कि रहती सदा गिद्धों की नज़रें, निरीह पड़े मांस पर
चीलें भी करती शिकार, सहमी चुहियों पर घात कर।
है समाज भी इन चील-गिद्धों से भरा पड़ा
कोई न बोलने को यहाँ अब खड़ा,
जब इसके घर पर ही गिद्ध मँडराते हैं,
खुद को घर वालों से भी सगा जता उसको फुसलातें हैं
दोस्त, पड़ोसी और रिश्तेदार का भेष बना कर आते हैं
अपनी मीठी बातों से निर्मल हृदय में एक विश्वास जगाते हैं
अपने छल को प्यार नाम दे हसीं सपने खूब दिखाते हैं
और यूँ ही हँसते मुस्कुराते एक दिन घात कर जाते हैं।
उसी समाज के सामने फिर उसको लाया जाता है
क्योंकि अब प्रश्न सामाजिक न्याय का आता है
घर-परिवार, प्यार, संस्कार सब घसीटा जाता है
पुनः समाज को न्याय का अवतार बताया जाता है।
दी जाती है दलीलें जो माँ-बाबा नही सुन सकते
कि वे तो गिद्ध हैं अपना स्वभाव कब छोड़ सकते
माँस खा कर उड़ जाना उनका धर्म है भला कैसे विमुख हो सकते।
गिद्धों का तो दोष नही, यह तय रहा
लेकिन न्याय में तो अब भी संसय रहा
हुआ है समाज का अनादर सजा कोई तो पायेगा-
गुमनामी में वह परिवार जिएगा और जिस भी घर बैठा गिद्ध वह घर ही छोड़ा जाएगा।

- अभिषेक तिवारी।

Friday, 28 September 2018

अंतःद्वंद

मुद्दतों हुए ख़ुद से मिले, जाने कहाँ भटक रहा हूँ।
आग का दरिया है या समंदर, जल रहा हूँ या गल रहा हूँ
या कि खो गया हूँ किसी निर्वात में
साँसे तो हैं पर कोई आवाज़ नही
दिल तो है पर पूरे जज़्बात नहीं
कुछ ख़्वाहिशें भी हैं पर उनमें वो बात नही
अब धड़कनें भी कुछ नही कहतीं उनमें भी कोई राज़ नही
फिर भी मुस्कुरा रहा हूँ, हर रिश्ता निभा रहा हूँ
मैं अपना ग़म स्वयँ से ही छिपा रहा हूँ।
शायद स्वप्न में हूँ, कोई भी बन्धन नही तोड़ पा रहा हूँ
या कि कमज़ोर हो गया हूँ, स्वयँ का भी बोझ नही उठा पा रहा हूँ लेकिन,
कमज़ोर होना तो मेरी फितरत ही नही, मैं क्या से क्या हो रहा हूँ
मुद्दतों हुए ख़ुद से मिले, जाने कहाँ भटक रहा हूँ।

कब और कैसे भटका, अब खोज़ रहा हूँ मैं
क्या, कब, कहाँ और क्यों, इन प्रश्नों से उलझ रहा हूँ मैं
ख़ुद से कब मिलूँगा, अब सोच रहा हूँ मैं लेकिन,
भटकना तो फितरत है मेरी, फिर क्यों डर रहा हूँ मैं
शायद यही ज़िन्दगी है और मौज कर रहा हूँ मैं।
नही खोया निर्वात में ना ही स्वप्न में हूँ
इसी दुनिया मे हूँ और दुनियादारी सीख रहा हूँ मैं।

- अभिषेक तिवारी

Monday, 29 January 2018

कॉन्फेशन

क्या हाल भाई लोग, सब ठीक - ठाक ?
अबे यार तुमलोगों को कुछ बताना था बे- साला सोचे थे, सबसे पहले बाहर निकल रहे हैं, मस्त इंजीनियर डॉक्टर टाइप यो-यो दोस्त बनाएँगे। लेकिन का करें - 'शार्ट हैण्ड जब लिखा लीलारा, तव का करीहें अवधेश कुमारा'।
तुम लोग रह ही गए बे, सही कहें तो पीछा ही नही छुड़ा पाए भाई।
नही, मतलब देखो कौनो साला काम का है ?
सब क्युटिया टाइप हैं, लेकिन पता नही क्यों ये बात साला कौनो और बोल दे तो बर्दास्त से बाहर हो जाता है। मन करता है "रेन कम वॉटर कम" कर दें।
साला बहुत घूमे बे कहाँ - कहाँ नही गए लेकिन घूम फिर के तुम्ही लोगो मे रह गए यार । साला हऊ का कहते हैं - एक्सेंट, तक नही सुधरा जहाँ जाते हैं लोग पूछ देते हैं भाई गोरखपुर साइड के हो क्या ?
शुरू में जब ईगो पे ले लीये थे तब तनी बुरा लगता था कि पहिचाना कैसे बे, बोल तो हम हिन्दीये रहे थे।
लेकिन देखो साला यहां भी खेल गयी किश्मत आज जब कई भाषा पढ़ लिए, अरे भाषा छोड़ो यहां कई सेमेस्टर लिंगविस्टिक पढ़ने के बाद अब लगता है कि यार जो मज़ा खींच के बोलने में हैं उ कहीं और, है नही।
एकाध समय फॉर्मेलिटी में छोड़ दें तो गुरु अब हमशे हो भी न पाएगा।
बड़ा दम लगता है यार बना के बोलने में मज़े नही आता हऊ का कहते हैं फील नही आता, नेचुरल फ्लो नही आता।
आ जिसको ई नेचुरल फ्लो पसन्द नही आता उ हमको पसन्द नही आता।
तुमलोग साला प्यार नही मजबूरी हो बे कोनो और टाइप वालन से ज्यादा जमता ही नही। अउर तुम लोगों से जल्दी खटकता ही नही आ कब्बो खटक जाए साला तो साला डर लगता है अलग से कि बेटा महफील में बहुत मौज ली जाएगी।
और हऊ कहावत 'हम' जोन कहते हैं, "महफील का फूफा होने से अच्छा मजबूरी का गांधी बन जाओ।"  बस इसी
का पालन कर के दाब लेना ही बेहतर समझते हैं।
का किश्मत है हमारी, इत्ते रात गए जब दुनिया बाबू सोना कर के सो गई है  या सोने वाली होगी तब साला तुम लोग की याद आ रही है, कि कितने बड़े वाले हैं सब
कब्बो नही सुधरेंगे सब।

बेटा आज फ्लो में हैं चाहें जित्ता लिख दें, लेकिन का फायदा किसके लिए लिखें साला पढ़ेगा कौन, जिनको पढना है साला स्क्रोल कर - कर के नीचे खोज रहे होंगे -

"देखबे बे कोनो के बड्डे ह का मोटका बड़ा ढेर लिख देहलस।
ना बे आज-काल ढेर ज्ञान देता उ।
जानत नइखे- ओकर कारे इहे ह।
हाँ उ नशीहत देके दुनिया के अपने सुत्तल होइ।
ई बात सही कहले ह।
का बात कर ताड़े सही में?
फोन करबअ सो।
का फायदा, उठइबे ना करी।
चल सो घरवे ओकरे।
ए मह तोहनी के चला जा तनी हम आवतनी घरवाँ से होके।
तोहरा ढेर कार रहेला, चुपचाप चलअ नाटक न बतियावअ।
हाँ बे चला सो कही घूमे चलेके- पनियहवाँ चले के?
हाँ बे हम आज ले ना गइल बानी ।
तू रहेदअ तोहरे मान के नाही बा।
आज केकर खर्चा बा।
बेटा तोहके बड़ा ढेर फिकर रहता,
का बनवावअ तड़अ?

अभिषेक ,अभिषेक , बाड़ा हो ,केतना सुतबअ ए मह ?
छोटू, छोटू... ,उठ बे, का बाबू रात भर जगाई भइल है का?"

- अभिषेक तिवारी।